Sunday 31 December 2017

क्या उसने कहा था
की जब न हो साथ ज़माने का
और न बने बात मनाने से
तो तुम उसे छोड़ देना
क्या उसने कहा था कि
बेशर्त प्यार है
कोई चाह नहीं
सिर्फ इसीलिए, मजबूरी हो
तो ये रास्ता देख लेना
तुम उसे छोड़ देना
क्या उसने कहा था
की इन्तजार सिर्फ मैं करुँगी
तुम्हारे आने तक
उस चौराहे पर बैठे हुए
तुम आकर एकदम नजदीक
उस पगडण्डी के परे, होकर खड़े
हाथ हिलाकर मुझे
जाने के लिए बोल देना
तुम उसे छोड़ देना
क्या उसने कहा था
बेइंतहा प्यार सिर्फ प्यार है
नहीं चाहता कोई शक्ल
कोई रिश्ता कोई आकार
या की ये बहाना है
चाहते नहीं तुम
ज़माने की मंशाओं को तोड़ देना
क्या उसने कहा था
की तुम उसे छोड़ देना  

Saturday 16 December 2017





मूक-आलाप 


मैं ज़िंदा हूँ
बस मैं ही ज़िंदा हूँ
मालूम ही ना चला
और सब मर गए
सैकड़ो किरदार जो
रहा करते थे मुझमें
कभी अकेला न था
चाहे इर्द गिर्द कोई न हो
जाने कब बहका इस भीड़ से
तमाशे से,
आज याद  किया
तो सब मर चुके थे
क्या बजह रही होगी
भूख से , नहीं उनको तो आदत थी उसकी
घुटन से, नहीं वो तो कही ज्यादा है बाहर
कोई बीमारी, उपेक्षा तो नहीं
पर वो सब इनसे ही तो जन्मे थे
फिर भी मर गए
मैं रोना चाहता हूँ  पर
लोग क्या कहेंगे
या की मैं खुश होऊ
की मैं अभी जिन्दा हूँ
और सब्र करूँ की मरते हैं
हर दिन सैकड़ो
सैकड़ो लोगों के अंदर।


खुद से जज्बातों को खोते जा रहा हूँ
मैं अकेला आज होते जा रहा हूँ। 

Saturday 28 October 2017

हे ईश्वर मुझे शक्ति दे
कि मैं लड़ पाऊं अपने अंतर्विरोधों से
कि मैं चल पाऊं सही रास्ते पर
और रहू ऊपर उन घरोंदो से
जो तूने बनाये ही नहीं

ईश्वर मुझे विचार दे की कहीं
रुक न जाऊ इस समाज की तरह
जो चाहता है बदलाब
पर होने नहीं देता

मुझे संवेदना दे की मैं हूँ
एक मानव सबसे पहले
किसी के दुःख, भावनाओं और संवेगो को
न देखूँ उसकी सामाजिक स्थिति से

मुझे प्रेम दे जो दे सकू उनको
जिनकी बजह से मैं हूँ
जिनके साथ मैं हूँ
जिसके साथ मैं होना चाहता हूँ

मुझे जीवन दे
जो भले ही छोटा हो पर
हर पल संतुष्टि भरा हो
और न हो कभी अफ़सोस
की काश मैं  इतना मजबूर न होता



Saturday 21 January 2017


हजार के नोट की व्यथा 


कभी ख्वाहिश था लोगों की
अब मर चुका हूँ, उनकी नजरो में
एक योजित मौत
उन गुनाहों के लिए, जो मैंने किये ही नहीं
की मेरा चरित्र कभी बदला ही नहीं
कभी भी , कही भी
की चाहे रहा, नरम उंगलियो का स्पर्श
या की फिर, सख्त हाथो का अहसास
या घिसी हुई, कमजोर और दरारों वाली
नाजुक हथेलियां
खुश ही रहा, की चाहे कही भी ठूसा गया
या बंधा रहा महीनो, उस साडी के पल्लू से
या हर शख्स के थूक से, स्वागत हुआ
और फिर चला आया, आलिशान कोठी में
हाँ  कभी रोना भी आया
जब पटका गया, टेबलों पर तो कभी निचे से
दिखाया गया, बेइज्जती से
लोकतंत्र के विशाल मंदिर में
कही बेहतर थी वो कच्ची बस्ती
जहा बड़ी इज्जत थी
पर चलता रहा,  जैसी आदत थी
हर जगह रहा मेरा नाम
प्यार-प्रीत में, हार और जीत में
झूठ और फरेब में
राजनीति में, धर्म में
आतंक में, दंगो में
हर गुनाह का मूल बनाया गया मुझे
हर उस शख्स ने  कोसा  मुझे
जिसके पास मैं  नहीं था
पर मैं कहा बदला
कोठों पर उड़ा , मंदिरो में सजा
की कभी बना, भावों का वाहक
लेकर आंसुओ की नमी
बुजुर्ग माँ से बेटी को
क्या क्या नहीं देखा
इंसानियत से हैवानियत तक
सब बदल जाते थे देखकर मुझे
पर मैं नहीं बदला
फिर भी निकाल दिया फरमान
मौत का मेरी
उन गुनाहों के लिए, जो तुम्हारे हैं
मैं तो बस अक्स हूं तुम्हारा
की कर पाओगे अहसास कभी
अपने गुनाहों का
और निकाल पाओगे
फरमान अपने खिलाफ
अपनी मौत का........









लॉक डाउन

कुछ ही दिन तो हुए लॉक डाउन के लगा जैसे अर्सा हुआ बाहर निकले  अब तो रूह सी फड़फड़ा रही है  दिन निकल जाता है बिस्तर पर  ये सोचते कि जल्द निकाल...